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कर्म (न्)  : पुं० [सं०√कृ (करना)+मनिन्] १. वह जो कुछ किया जाय। किया जानेवाला काम या बात। काम कार्य जैसे—दुष्कर्म, सत्कर्म। २. हिन्दू-शास्त्रों के अनुसार प्राणियों के द्वारा पूर्व जन्मों में किये हुए ऐसे कार्य जिनके फल वह इस समय भोग रहा हो अथवा आगे चलकर भोगने को हो। भोग्य। ३. वे कार्य जिन्हें पूरा करना धार्मिक दृष्टि से कर्त्तव्य समझा जाता हो। जैसे—यजन-याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रतिग्रह स्मार्त्त कर्म है। ४. हठयोग में धौति, वस्ति, नेति, न्योली आदि कियाएँ। ५. ऐसे सब कार्य जो किसी को स्वतःतथा स्वाभाविक रूप से सदा करने पड़ते है। जैसे—इंद्रियों का कर्म अपने विषयों का ग्रहण तथा भोग करना है। ६. धार्मिक क्षेत्र में ऐसे कार्य जिन्हें करने का शास्त्रीय विधान हो। जैसे—चूड़ाकर्म। यौ०—कर्मकांड (दे०) ७. मृतक की आत्मा को शांति प्राप्त कराने या उसे सदगति दिलाने के उद्देश्य से किये जानेवाले कार्य या संस्कार। जैसे—अत्येष्टि कर्म। विशेष—हमारे यहाँ के शास्त्रों में कर्म का विचार अनेक दुष्टियों में हुआ है। मीमांसा के इसके दो भेज किये गये हैं।—गुण-कर्ण और प्रधान कर्म। योगसूत्र में इसके विहित, निषिद्ध और मिश्र ०ये तीन रूप कहे गये हैं। वैशेषिक में यह ६ पदार्थों में से एक माना गया है। जैन दर्शन में इशकी उत्पत्ति जीव औ पुदगल के आदि संबंद से मानी गई है। ८. कोई प्रशंसनीय या स्तुत्य काम। ९. व्यंग्य के रूप में, कोई अनुचित या हास्यास्पद काम। करतूत। जैसे—अभी न जाने आपने और कितने ऐसे कर्म किये होंगे। १॰ व्याकरण में किसी वाक्य का वह पद फल होता है। (ऑब्जेक्टिव) जैसे—मैंने उसे पुस्तक दी।’’ में का ‘पुस्तक’ कर्म है; क्योंकि मेरे द्वारा देने की जो किया हुई है उसा प्रभाव या फल पुस्तक पर हुआ है। वि० अच्छी तरह और पूरा-पूरा काम करनेवाला। (यौगिक पदों के आरंभ में पूर्व-पद के रुप में) जैसे—कर्म-कार्मुक= अच्छी तरह या पूरा काम देनेवाला अर्थात् बढ़िया धनुष।
समानार्थी शब्द-  उपलब्ध नहीं
 
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